क्या शामेंं थी वो

क्या शामेंं थी  वो

तुम गुजरते थे जिन रास्तोंं से

उन रास्तोंं को मंंजील बनाली

तुम मूड के देखो 

इसलिऐ अपने आप पे बेशरम की  ठपकी लगा ली 

पर उस जिद्द को ना  छोडा  तुम मुडने तक

 मेरी आॅॅंंखोंं की पुतलीयोंं को तुमसे ना हटने धमकि दिला दी

क्या शामेंं थी  वो

तुम्हारे फेवरीट होटल मे 

बास तुम्हारे दिदार के लिए

बिलोंं मेंं बढोतरी ला दी

क्या शामेंं थी  वो

जब तुम अंंजान बने फीरते थे

और मेंं पागल दिवानी  करार दी

Published by dreamywomanblog

Few words untold

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