क्या शामेंं थी वो
तुम गुजरते थे जिन रास्तोंं से
उन रास्तोंं को मंंजील बनाली
तुम मूड के देखो
इसलिऐ अपने आप पे बेशरम की ठपकी लगा ली
पर उस जिद्द को ना छोडा तुम मुडने तक
मेरी आॅॅंंखोंं की पुतलीयोंं को तुमसे ना हटने धमकि दिला दी
क्या शामेंं थी वो
तुम्हारे फेवरीट होटल मे
बास तुम्हारे दिदार के लिए
बिलोंं मेंं बढोतरी ला दी
क्या शामेंं थी वो
जब तुम अंंजान बने फीरते थे
और मेंं पागल दिवानी करार दी
क्या बात है,
बहुत खूब मेम जी
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Wah madame wah…….kya khoob chitrit kiya hai appne apni shamo ko …..wonderful 😍
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…उन शामों को कविताओं में संजोये रखा है आज भी…
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Ji yahi to hunar hai aapka 🙂
ki puri ki puri sham aapne shabdo me sanjoy rakha hai
in love with your writing ❤
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Thank You Rohit …its pleasure feeling to hear this from you,the amazing writer Rohit…
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Thank you so much ma’am ☺
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